स्वामी सहजानन्द सरस्वती: पुण्य स्मरण
(1889-1950)

भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में किसान जागरण के अग्रदूत स्वामी सहजानन्द का जन्म 1889 में महाशिवरात्रि के दिन उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा ग्राम में हुआ था। स्वामी जी का प्रारम्भिक नाम 'नवरंग राय' था, 'होनहार वीरवान के होत चिकने पात' वाली कहावत नवरंग राय के साथ चरितार्थ थी। वह पढ़ने में मेधावी थे। उन्होंने 6 वर्ष की शिक्षा 3 वर्ष में ही प्राप्त कर ली। वह गीता तथा रामायण जैसे धर्मग्रन्थों का भी अध्ययन करते थे। गृहस्थ आश्रम में स्वामी जी को किसी भी प्रकार की सुख-शान्ति का अनुभव नहीं हो रहा था। जिसके चलते उन्होंने गृह परिवार का परित्याग कर दिया और काशी पहुँचकर संन्यास ग्रहण कर लिया तब से उनका नाम स्वामी सहजानन्द हो गया। स्वामी सहजानन्द ने संस्कृत भाषा के साहित्य, व्याकरण एवं षड्दर्शनों का गहन अध्ययन प्रारम्भ किया और स्वामी अच्युतानन्द सरस्वती से दीक्षा लेकर दण्ड ग्रहण किया। तब से वे दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती कहलाने लगे।

स्वामी जी के केवल संन्यासी तथा समाज सुधारक ही नहीं थे अपितु एक कुशल राजनीतिज्ञ व नेता भी थे। स्वामी जी विदेशी शासन से होने वाली हानियों से परिचित थे इसलिए वे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े 5 दिसम्बर, 1920 ई. को महात्मा गाँधी से मुलाकात के बाद उन्होंने असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया जिस कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। किसानों की दयनीय दशा को देखकर स्वामी जी को बहुत दुःख होता था उनकी दशा में सुधार लाने का उन्होंने बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्होंने स्थानीय किसान सभा से लेकर अखिल भारतीय सभा तक का संगठन खड़ा किया जो अपने अधिवेशनों और क्रियाकलाप के द्वारा अपनी माँगों को सरकार से मनवाती थी। स्वामी जी का मानना था कि किसान भारत का मेरूदण्ड हैं। उनकी दयनीय दशा देखकर स्वामी जी का दिल दहल जाता था। उन्हीं में भगवान का दर्शन करते थे। वे उन्हीं की पूजा करते थे और अपने किसान रूपी भगवान का अपमान सहने के लिए तैयार नहीं थे। स्वामी जी ने किसानों की दशा में सुधार लाने के लिए व्रत लिया और उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम समय तक इस व्रत का पालन किया। वे किसानों के हित के लिए जमींदारी प्रथा के उन्मूलन को आवश्यक समझते थे।

1936 ई. में जिस अखिल भारतीय किसान सभा की उन्होंने स्थापना की थी, उसके वे तीन बार अध्यक्ष थे और बाकी वर्षों में उसके महासचिव के पद पर आसीन रहे। स्वामी जी के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा देश की आजादी के लिए और जनसाधारण के अधिकारों के लिए दृढ़तापूर्वक लड़ती रही है। उल्लेखनीय है कि युद्धोत्तर काल में किसानों पर सरकार और जमींदार दोनों का अत्याचार हो रहा था। किसान भी लड़ाकू होते जा रहे थे। वे जमींदारी प्रथा समाप्त करने के लिए कानून के निर्माण की माँग कर रहे थे। स्वामी जी के नेतृत्व में ऐसा लगता था कि किसान क्रान्ति की तरफ बढ़ रहे हैं। स्वामी जी जहाँ कहीं संघर्ष में किसानों की सफलता देखते थे, उन्हें अपार खुशी होती थी।

स्वामी जी के धार्मिक विचार भौतिक एवं वैज्ञानिक थे, उन्होंने व्यवहार में देखा था कि धर्म में तकं, दलील एवं विचार को स्थान नहीं है। उन्होंने यह भी देखा कि पंडितों, मौलवियों एवं धर्माचार्यों की बातों को आँख मूंद कर मानना पड़ता है। शिखा एवं दाढ़ी से ही हिन्दू मुसलमान का परिचय होता है। स्वामी जी ऐसे धर्म के विरोधी थे। उनके अनुसार धर्म में मानवतावाद का अभाव है साथ ही, ऐसा धर्म कई दृष्टियों से हानिकारक है। वे धर्म को व्यक्तिगत वस्तु मानते थे, साथ ही बुद्धि और विवेक पर आधारित मानते थे।

स्वामी जी उच्चकोटि के विद्वान, लेखक और साहित्यकार थे। उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की। तिलक के 'गीता रहस्य' की तरह ' गीता हृदय' उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी पर भी स्वामी जी का पूरा अधिकार था। स्वामी जी ने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए विहटा (पटना) में संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की थी। स्वामी जी की सोच कालजयी थी। उनमें कोई आडम्बर नहीं था। उन्हें किसी पद या पुरस्कार का लोभ नहीं था। उन्होंने मनसा, वाचा, कर्मणा समाज की सेवा की थी। वे सत्यवादी थे उनका अन्दर और बाहर सिद्धान्त और व्यवहार एक समान था। प्राचीन संन्यासियों की भाँति 26 जून, 1950 को 2 बजे रात में स्वामी जी ब्रह्मलीन हो गये।

आज स्वामी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर देश-विदेश में शोध हो रहे हैं। आज के दिग्भ्रमित राजनीतिक समाज को स्वामी जी के जीवन आदर्शो से सुधारा जा सकता है। स्वामी जी का जीवन जहाँ आज के राजनीतिज्ञों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं, वहीं साधु, संन्यासियों के लिए भी अनुकरणयी हैं। व्यक्तिगत मुक्ति के लिए आजीवन प्रयास करने के बजाय सेवा में रुचि लेना अधिक श्रेयस्कर है। यही साधुता एवं संन्यास की सार्थकता है। स्वामी जी द्वारा रचित कुछ ग्रन्थ निम्नलिखित हैं- 'कर्म कलाप', 'ब्रह्मर्षिवंशविस्तार', 'ब्राह्मण समाज की स्थिति', 'मेरा जीवन संघर्ष', 'गीता रहस्य', 'गीता हृदय', 'क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा', 'किसान सभा के संस्मरण', 'किसान कैसे लड़ते हैं?', 'किसान क्या करें?', 'खेत-मजूदर और झारखण्ड के किसान ' इन ग्रन्थों में उनकी आत्मा बोलती है। उनका सिद्धान्त था' उपदेश से उदाहरण उत्तम है।'

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